संस्कृति और विरासत
प्रकृति का एक टुकड़ा अबुझमाढ़ : अबूझ का शाब्दिक अर्थ है जिसे बुझा न गया हो तथा माड़ का अर्थ है पहाड़. अबुझमाढ़ का अर्थ गोंडी में निकला जाये तो समझाने में आसानी होगी अर्थात पहाड़ में रहने वाला गवांर वैसे माड़ में रहने के कारन इन्हें माडिया कहा जाता है और यह इनका जाति सूचक शब्द भी है। ये लोग पेंदा खेती करने के लिए मैदानी क्षेत्र से पहाड़ पर गए और वही के हो कर रह गए इसलिए इनका रहन सहन, भाषा बोली सब मैदानी क्षेत्र के आदिवासियों से मिलती है। बुनियादी आवश्यकताओ के ना होते हुए भी प्रकृति की गोद में अपनी सब जरूरतों के साथ जीवन जीने की कला इस जनजाति की विशेषता है।
घोटुल : यह प्रथा गोंड़ जनजाति के युवक-युवतियों का सामाजिक सांगठनिक स्वरूप है, जहां युवा भावी जीवन की शिक्षा प्राप्त करत है। इन युवाओं को स्थानीय बोली में चेलिक-मोटयारी कहते है। इस प्रथा को गोंड़ जनजाति में व्यापक शिक्षण स्वरूप में देखा जाता है। इसमें नृत्य, गान जैसे विभिन्न क्रियाकलाप के माध्याम से बहुमुखी विकास दी जाती है। घोटुल की प्रषासनिक व्यवस्था काफी कठोर रही है। इसके उल्लंघन पर दंड का प्रावधान रहा है जिससे ग्रामीणों को भी कोर्इ आपतित नहीं होती थी। इस संगठन द्वारा सामाजिक संरचना जैसे जन्म से लेकर मृत्यु तक में व्यवस्था में नि:शुल्क सहयोग दिया जाता है इसके एवज में गांव वाले इन्हे भोजन आदि करा कर सम्मान करते है। अब यह प्रथा धीरे- धीरे विलुप्तप्राय हो रही हैं।
जाति-जनजातिया और बोली-भाषा : बस्तर का आदिवासी समाज अपने को यंहा का मूल निवासी मनाता है। नारायणपुर में निवासरत जनजातिय समाज गोंडी, हल्बी और अबुझमाडी बोली बोलते है किन्तु यंहा की संपर्क बोली हल्बी है। इन जनजातिय बोलियों में इनके लोक गीत, लोक कथा, पहेलिया आदि समाहित है जो शनैः-शने विकसित हुई है।
अमुस तिहार : यह आदिवासी क्षेत्र का पहला त्यौहार है। कहा जाता है की इससे इस क्षेत्र में त्योहारों की शुरुवात होती है। अमुस अमावस्या का, सावन माह के अमावस्या में मनाये जाने वाले इस त्योहार को पुरे छत्तीसगढ़ में मनाया जाता है। हिंदी में हरियाली, हल्बी छत्तीसगढ़ी में हरेली तिहार कहा जाता है.ग्रामीण क्षेत्र में मनाये जाने वाले इस त्यौहार में किसी भी बीमारी और महामारी से बचने के प्रारंभिक उपाय किये जाते है। आज के दिन से नागपंचमी तक जड़ी-बूटी जानने वाले अपने सहयोगियों को दवाई बनाने की विद्या सिखाते है। अमावस्या में किसान अपने कृषि उपकरणों की पूजा करता है, घरो में पुड़ी बड़ा आदि पकवान बांये जाते है। साल के पहले त्यौहार को सभी समाज और वर्ग के लोग बड़ी श्रद्धा से मानते है।
दिवाड : पुरे भारतवर्ष में दीपावली का त्यौहार बड़े धूम धाम से मनाया जाता है, पांच दिनों तक चलने वाला यह त्यौहार सभी वर्ग के लिए आनंद और उमंग लेकर आता है। दीपावली आदिवासी समाज का त्योहार नहीं है, वे दीपावली की जगह दिवाड मानते है, जिसमे वह लक्ष्मी देवी की पूजा नहीं करता अँधेरे में दीप नहीं जलाता बल्कि अपने लोक देवताओ में आस्था जगाने और बुरी आत्माओ की शक्ति का नाश करने के लिए दीप जलाता है। धनतेरस के दिन आदिवासी लोग देवताओ के स्थान गुडी की, गोठान की, खलिहान की, आना कुडमा की साफ सफाई करता है और नरक चौदस के दिन उन स्थानों में दिया जलाता है। इस प्रकार आदिवासी समाज दीपावली या दिवाड मनाता है।